मलूक दास के दोहे (१४०) राम सुमिर ले रे मना, बिरथा न जन्म गँवा‌उ । औसर बीता जाता है, बहुरि न ऐसा दाँउ ॥ राम भजन कर लेहि मन, जब लगि तन कुसलात । नदी नीर जेंउ जन्म पद, मारू मारू कि‌ए जात ॥ रामहिं सुमिरहु रैन दिन, छाँडि कर्म फल आस । संतन की सेवा करत, मिलिहैं हरि सुख रास ॥ अब सागर के तरन को, है हरि नाम अधार । सो बिसरायो सहज ही, मन मूढ़ गँवार ॥ मेरो कछु न जा‌इहै, अतं सो‌ई पछता‌इ । जो हरि नाम बिसारिहै, वादि क्रोध लपटा‌इ ॥ व्याकुल भया बिनती करी, राखहु सरनि मुरारि । मोरे कछु न बसात है, लीजै मोहि उधारि ॥ क्रोध तो काला नाग है, काम तो परकट काल । आपु आपु को ऐचंते, करि डारा बेहाल ॥ एक कनक अरु कामनी, ए दो‌ऊ बटमार । मीठी छूरी ला‌इ के, मारा सब संसार ॥ उपजत बिनसत थकि परा, जिया उठा अकुला‌इ । कहै मलूक बहु भरमिया, अब नहिं भरमा जा‌इ ॥ अतं एक दिन मरहुगे, गलि गलि जैहैं चाम । ऐसी झूठी देह ते, लेहु न साँचा नाम ॥ सुंदर देह पा‌इ के, मत को‌ई करै गुमान । काल दरेरा खायगा, क्या बूढ़ा क्या ज्वान ॥ सुंदर देह देखि कै, उपजत है अनुराग । मढ़ी न होती चाम तो, जीवत खाते काग ॥ इस जीने का गर्व क्या, कहा देह की प्रीत । बात कहत ढह जात है, ज्यों बालू की भीत ॥ मरने मरने भाँति है, जो मरि जानै को‌इ । राम द्वारे जो मरे, बहुरि न मरना होय ॥ मुवा मु‌ई को ब्याहता, मुवा ब्याहि कै देह् । मु‌ए बरातहिं जात् हैं, मुवा बधा‌इ ले‌इ ॥ इन् की यह् गति देखि के, जहँ तँह् फिरौं उदास् । अजर् अमर् प्रभु पा‌इया, कहत् मलूकदास् ॥ भजि ले चरन् मुरारि के, जीति सार् न् हार् । कहै मलूक् हरि चरन् बिनु, जनमि मु‌ए कै बार् ॥ कहत् मलूक् सपूत् सो, भगति करै चित् ला‌इ । जरा मरन् ते बीच् परै, अजर् अमर् हो‌इ जा‌इ ॥ पसु पंछी तिनते भले, जो हरि सुमिरत् नाहिं । जीवन् ही भूतन् भजै, ते नर् नरकहिं जाहिं ॥ जा घर् भगति न् भागवात्, संत् नहीं मेहमान् । ता घर् जम् डेरा कियो, जिय् तेहि परो मसान् ॥ हाक् सुनी गजराज् की, चौघा‌ए बृजराज् । गोली लागै पहिले ही, पाछे होत् अवाज् ॥ दया धरम् हिरदे बसे, बोले अमृत् बैन् । ते‌ई ऊँचे जानि‌ए , जिनके नीचे नैन् ॥ भेदी हो‌इ सो जाने, नट् बाजी संसार् । झूठे नाते जगत् के , तात् मात् सुत् नार् ॥ और् सकल् सब् धंध् है, साँचा तू करतार् । जग् फुलवारी ज्यों रची, तिन् बहु रंग् सँवार् ॥ अतं न् तेरा लखि परै, अलख् निरंजन् रा‌इ । आसा तृसना ला‌इ तिन्, दिया जगत् भरमा‌इ ॥ सब् घट् मेरा साँइया, दुतिया भा‌उ बिसारि । हित् सों पूजा कीजि‌ए, मन् बच् कर्म् बिचारि ॥ जाति हमारी आतमा, नाम् हमारा राम् । पाँच् तत्व् का पूतरा, आ‌इ किया विश्राम् ॥ मानि लेहु हरि आरती, भ‌इ मोते बड़ि चूक् । एक् बार् करि दो छिमा, तेरो दास् मलूक् ॥ सुनत् पतित् हरि को विरद्, अधम् उधारन् हार् । अब् को‌उ नहिं अटकिहै, मोसौं उतरो पार् ॥ ध्यान् धारि निज् रूप् को, काया कीजै भेंट् । छूट् जाय् भय् काल् को, हरि सों बाढ़ै हेत् ॥ प्रीतम् राम् सँभारिये, मन् बच् कर्म् बिचारि । मीत् कन्हा‌ई भगत् का, भाषत् वेद् पुकारि ॥ हरि दरसन् के चा‌उ ते, लागी हरि सों प्रीति । बिसरी कुल् मरजाद् सब्, प्रेम् अटपटी रीति ॥ प्रेम् भगति उर् आनि कै, निज् सरूप् धरि ध्यान् । अपनो विरद् सँभारि कै, तब् मिलिहै भगवान् ॥ महिमा प्रेम् भगति की, बरनौं कहा विशेष् । सो हरि देखौं नैन् भरि, जाकौ रूप् न् देख् ॥ षट् दरसन् दरवेस् पुनि, संन्यासी भगवान् । प्रेम् बिना पहुँचै नहीं, दुर्लभ् पद् निर्वान् ॥ प्रेम् परम् पद् पा‌इ‌ए, प्रेम् उतारे पार् । प्रेम् भगति की महिमा, श्री मुख् कही मुरार् ॥ प्रेम् भगति नहिं छँडि‌ए, जब् लगि घट् में प्रान् । जासों हित् कीन्हें मुझे, आ‌इ मिले भगवान् ॥ प्रेम् प्रीति सों आरती, कीजै बारंबार् । आरति आरतवंत् की, सहि नहिं सकत् मुरारि ॥ प्रेम् भगति जाके घट्, पूरन् ग्यानी सो‌इ । कह् मलूक् जल् तरंग् ज्यों, कहत् सुनत् में दो‌इ ॥ जा हरि के दीदार् को, भया दीवाना जीव् । सतगुरू की दया भ‌ई, सहज् मिला सो पीव् ॥ मैं चूँकि निरभय् भया, आ‌ई मन् परतीति । धर्म्-कर्म् सब् छुटि गया, लागी हरि सों प्रीति ॥ सोवत् राम् प्रताप् अब्, जागि मरै बला‌इ । उपजो ब्रह्मानंद् सुख्, दुख् सब् ग‌ए बिला‌इ ॥ तीन् लोक् में जानिया, बैठा भया सलूक् । गुरु गोविन्द् किरपा करी, भया ‘ मलूक् ’ मलूक् ॥ हृदय् राम् मन् हरि बसै, रघुपति कीन्ह् निबाहु । दास् मलूका यों कहै, भयो चोर् ते साहु ॥ घरी घरी हरि गुन् रटत्, गै सब् विघन् बिलाय् । दास् मलूका सुखी भ‌ए, श्री गुरु राम् सहाय् ॥ राम् नाम् पूजा मेरी, सुमिरन् मेरे राम् । तीरथ् गंगा आदि सब्, मेरे हरि के नाम् ॥ संध्या तरपन् सब् तजे, तीरथ् कबहुँ न् जा‌उँ । हरि हीरा हृदय् बसै, ताहि पैठि अन्हवा‌उँ ॥ वेद् पुरान् सासतर्, पूजा क्रिया अचार् । एक् पुरुष् के आसरे, तजि‌ए सब् बेवहार् ॥ सर्व् व्यापक् आत्मा, सतगुरु दियो बता‌इ । अब् क्यों पाती तोरि के ,प्रतिमा पूजौं जा‌इ ॥ उहाँ न् कबहुँ जा‌इ‌ए, जहाँ न् हरि का नाम् । दीगंबर् के गाँव् में, धोबी का क्या काम् ॥ राम् राम् के नाम् को, जहाँ नहीं लवलेस् । पानी तहाँ न् पीजि‌ए, परिहरि‌ए सो देस् ॥ दाग् जो लागा नील् का, सौ मन् साबुन् धोय् । कोटि बार् समझा‌इया, कौ‌आ हंस् न् होय् ॥ दु:खदायी सबतें बुरा, जानत् हैं सब् कोय् । कहत् मलूक् कंटक् मु‌आ, धरती हलकी होय् ॥ माया मगन् महंत् के, तुम् मत् बैठो पास् । कौड़ी कारन् लड़ि मरै, कथनी कथै पचास् ॥ चार् पहर् दिन् होत् रसो‌ई, तनिक् न् निकसत् टूक् । कह् मलूक् ता मंदिर् में, सदा रहत् है भूत् ॥ आदर् मान् महत्व् सत्, बालापन् को नेह् । ये चारों तब् हीं ग‌ए, जबहिं कहा कछु देह् ॥ जेते सुख् संसार् के ,इकठे कि‌ए बटोर् । कन् थोरे काँकर् घने, देखा फटक् पछोर् ॥ हरि रस् में नाहीं रचा, किया काँच् ब्योहार् । कह् मलूक् वो ही पचा, प्रभुता को संसार् ॥ उतरे आये सराय् में, जाना है बड़् कोह् । अटका आकिल् प्रेम् बस्, ली भठियारी मोह् ॥ गर्व् भुलाने देह् के, रचि रचि बाँधे पाग् । सो देहि नित् देखि के, चोंच् सँवारे काग् ॥ मलूक् कोटा झाँझरा, भीत् परी भहराय् । ऐसा को‌ई न् मिला, जो फेर् उठावै आय् ॥ जागो रे अब् जागो भैया, सिर् पर् जम् धार् । ना जाने कौने घरी, कहि लै ज‌इहै मार् ॥ कुंजर् चींटी पशु नर्, सब् में साहेब् एक् । काटे गला खोदा‌ए का, करै सूरमा लेख् ॥ साधो दुनिया बावरी, पत्थर् पूजन् जाय् । मलूक् पूजै आत्मा, कछु माँगे कछु खाय् ॥ कह् मलूक् हम् जबहिं ते, लीन्हों हरि की ओट् । सोवत् ही सुख् नींद् भरि, डारि भरम् की पोट् ॥ जीवहुँ ते प्यारे अधिक्, लागैं मोहीं राम् । बिनु हरि नाम् नहीं मुझे, और् किसी से काम् ॥ किरतिम् देव् न् पूजि‌ए, ठेस् लगै फुटी जाय् । कह् मलूक् शुभ् आत्मा, चारों जुग् ठहराय् ॥ प्रेम् नेम् जिन् न् कियो, जीते नाहीं मैन् । अलख् पुरुष् जिन् न् लख्यौ, छारि परो तेहि नैन् ॥ पीर् सभन् की एक् सी, मूरख् जानत् नाहिं । काँटा चूभे पीर् होय्, गला काट् को‌उ खाय् ॥ राम् नाम् एकै रती, पाप् के कोटि पहार् । ऐसी महिमा नाम् की, जार् करै सब् छार् ॥ राम् नाम् औषध् करौ, हिरदे राखौ याद् । सकट् में लौ ला‌इ‌ए, दूर् करै सब् वयाध् ॥ नाम् जहाज् बिना को‌उ, भवजल् अगम् अपार् । तरि न् सकै नारद् सुक्, निस्चै कियो विचार् ॥ ज्यों बनिया मन् अगु‌आ, पूँजी हरि को ध्यान् । कहै मलूक् यह् लाभ् बड़्, भेंटो श्री भगवान् ॥ सब् पानी को चूपरो, एक् दया जग् सार् । जिन् पर् आतम् चीन्हिया, ते‌ई उतरे पार् ॥ करै भक्ति भगवान् की, कबहुँ करै नहिं चूक् । हरि रस् में राँचौ रहै, साँची भक्ति मलूक् ॥ सो‌ई सूर् सराहि‌ए, जो लरै धनी के हेत् । पुरजा पुरजा कटि परै, त‌ऊ न् छाँड़े खेत् ॥ जहाँ जहाँ बच्छा फिरै, तहाँ तहाँ फिरै गाय् । कहै मलूक् जहाँ संत् जन्, तहाँ रमैया जाय् ॥ हरि की माया जग् ठगै, ब्रह्मा विष्णु महेस् । सो अजीत् प्रभु आपकी, धरो मोहनी भेस् ॥ कहे विवेक् जग् आ‌इके , मरना है निरधार् । पै हरि द्वारे जो मरै, मरै न् दूजी बार् ॥ जेते देखे आतमा, तेते सालिगराम् । बोलनहारा पूजि‌ए, पत्थर् से क्या काम् ॥ आतम् राम् न् चीन्हहीं, पूजत् फिरैं पषान् । कैसहु मुक्ति न् होयगी, केतिक् सुनौ पुरान् ॥ देवल् पूजे कि देवता, की पूजे पहाड़् । पूजन् को जाँता भला, पीस् खाय् संसार् ॥ हम् जानत् तीरथ् बड़े, तीरथ् हरि की आस् । जिनके हिरदे हरि बसै, कोटि तिरथ् तिन् पास् ॥ हरि निर्गुन् क्यों बरनि‌ए, एक् अनेक् परकार् । सो‌इ सब् कुछ् सो‌ई, रहत् सदा संसार् ॥ कारन् जग् को ब्रह्म् है, और् न् को‌ऊ आहि । यह् प्रपंच् सब् ब्रह्म् है, जानहु निस्चै ताहि ॥ अनंत् कोटि ब्रह्मांड् धरि, सब् बिधि पूरत् आस् । जानै अपनी आपु गति, कहत् मलूकादास् ॥ कठिन् पियाला प्रेम् का, पिये जो हरि के साथ् । चारों जुग् माता फिरै, उतरै जिय् के साथ् ॥ सब् को‌उ साहब् बंदते, हिन्दू मुसलमान् । साहब् तिनको बंदते, जिन् का ठौर् इमान् ॥ जे दुखिया संसार् में, खोवौ तिनका दुक्ख् । दलिद्दर् सौंपि मलूक् को, लोगन् दीजै सुक्ख् ॥ जो तेरे घट् प्रेम् है, तो कहि कहि न् सुनाव् । अतंरजामी जानि हैं, अतंरगत् का भाव् ॥ भेष् फकीरी जे कटै ,मन् नहिं आवै हाथ् । दिल् फकीर् जे हो रहे, साहब् तिनके साथ् ॥ मैं जाना मन् मरि गया, तन् करि डारा खेह् । इस् मन् की परतीत् क्या, मारे अनेक् विदेह् ॥ मन् ही के संकल्प् ते, भयो जो तन् अभिमान् । सो छूटै जब् कीजि‌ए, ब्रह्म् नदी असनान् ॥ हरि प्रसाद् से पा‌इ‌ए, अस्थित् पद् निर्वान् । कह् मलूक् मन् के मु‌ए, हो‌इ न् आवा जान् ॥ हरि तो सों तेरे निकट्, तू पुनि फिरत् उदास् । मृग् कस्तूरी नाभि में, फिर् फिर् ढूँढै घास् ॥ नाभि बसै कसूरिया, मृग् निज् सुधि बिसराय् । भ्रम् तो तरू बैली सकल्, ढूँढे बन्-बन् जाय् ॥ तरू बैली बन् ढूँढते, सो भ्रम् नित् अधिकाय् । जब् थिर् देखै आपू में, तब् वह् भ्रम् नसि जाय् ॥ जौं तोहूँ ज्यों मृग् भ्रमहिं, छाँड़ि धर‌इ हरि ध्यान् । कहै मलूक् तो सहज् ही, पावै पद् निर्वान् ॥ जरा मरन् आवा गमन्, पाप् पुन्न् संदेह् । जन् मलूक् के धनि प्रभु, भ्रम् काटो करि नेह् ॥ हरि अनादि गति अवगति, निर्गुन् सगुन् प्रमान् । भगतन् के हितकारी प्रभु, प्रगटत् प्रीति समान् ॥ जो भाया सो‌ई किया, करनहार् समरत्थ् । का‌इ वाकि मन् ते परे, कहो न् जा‌इ सकत्थ् ॥ एकहिं अक्षर् ते सकल्, प्रकृति पुरुष् विस्तार् । कह् मलूक् बहु विधि जगत्, नामहि है निस्तार् ॥ कारन् में कारज् नहीं, कारन् कारज् माहिं । स्थित् घट् में मृतिका, मृतिका में घट् नाहिं ॥ सब्द् सरूपी पुरुष् जो, करन् करावन् हार् । जैसे का तैसा भया, अविगत् अगम् अपार् ॥ यह् घट् के सदृस्, दस् इन्द्री दस् द्वार् । तिन् के भीतर् आहि मन्, चंचल् जल् अनुहार् ॥ जो जल् थिर् भ‌ए आत्मा, गगन् सदृस् दरसा‌इ । तासों दास् मलूक् कह्, राखिब् मनहिं लगा‌इ ॥ नित्य् निमित्य् प्राकृत्, अतंक् प्रलै समान् । जैसे का तैसा रहा, कहै मलूक् निर्वान् ॥ पद् निर्वानहिं को गहै, करे सहि सकै विसेष् । रमित् रूप् नहिं लख् परै, ताते नाम् अलेख् ॥ छोटो बड़ो न् घटि बढ़ि, आपुहिं सब् प्रकास् । कहै मलूक् अनादि हरि, साधन् को विश्वास् ॥ पावै पद् निर्वाण् सो, जीवन् मुक्ति रिसाल् । हरि संग् हरि उर् में रहै, हरि तेहि सदा दयाल् ॥ निरंकार् अविनासी, प्रनव‌उँ दुह् कर् जोरि । जाकी सरनि सदा सुख्, भ्रमै नहीं मति मोरि ॥ मन् के आज् आनंद् है, बैठे भगतन् पास् । इहै घरी लेखे परी, कहत् मलूकादास् ॥ ठाकुर् को बिसरा‌इ मन्, भूलत् सपन् समाज् । नाता लावत् जागत् में, आवत् नाहीं लाज् ॥ हरि के जनम् कर्म् गुन्, गावत् होत् प्रकास् । संकट् निकट् न् आव‌ई, कहत् मलूकादास् ॥ परान् पियारा पाहुना, धरि एक् बिलवा आ‌इ । करिहौं सेवा भली विधि, न् जानौ कब् जा‌इ ॥ बहुत् काल् भरमत् भ‌ए , खोजत् ब्रह्म् भुलान् । आदि ब्रह्म् हरि जागे, सूत्र् सूत्र् परवान् ॥ ना मैं भूत् न् देह् हौं, नहिं इन्द्री विस्तार् । इनको मैं साक्षी सदा, याको नाम् विचार् ॥ रहौं भरोसे राम् के, बनिजहि कबहूँ न् जा‌उँ । दास् मलूका यों कहैं, हरि बिरवै मैं खा‌उँ ॥ माला जपौं न् कर् जपौं, जिभ्या कहौं न् राम् । सुमिरन् मेरा हरि करैं, मैं पायो विश्राम् ॥ ध्यान् धारि गुरू-रूप् को, काया कीजै भेंट् । छूट् जाय् भय् काल् को, बाढ़ै हरि सों हेत् ॥ प्रेम् ग्यान् जब् होय् दृढ़्, रहै न् भ्रम् को लेस् । तब् मलूक् संसै बिना, क्या दे‌इ गरू उपदेस् ॥ लघु दीरघ् नहिं आतमा, सब् में यों दरसा‌इ । नभ् में घट् ,घट् माहिं नभ्, घट् मठ् हो‌इ न् जा‌इ ॥ जब् जीवै निज् मान् तजि, धरै रूप् निज् ध्यान् । प्रेम् भगति रस् ऊपजै, सुनि अनहद्-धुनि कान् ॥ यह् मलूक् निरनै कियो, सकल् शास्त्र्-मत्-सार् । भव् सागर् के तरन् को, नामै है आधार् ॥ कह् मलूक् जब् तें ल‌इ, राम् नाम् की ओट् । सोवत् है सुख् नींद् भरि, डारि भरम् की मोट् ॥ नमो नमो पुनि पुनि नमो, नमो पुरुष् भगवान् । अर्ध् नाम् जाके तरे, जल् ऊपर् पषान् ॥ मलूका संध्या तर्पन् सब् तजे, तीरथ् कबहुं न् जाहिं । हरि हीरा हिरदै बसे, तहि पैठि अन्हवाहिं ॥ सुनि श्री गुरु के वचन् जि‌उ, लागो करन् विचार् । मन् तारै मन् बोरै, मनै उतारै पार् ॥ भजि मुरारि के चरन्, तजि अहमेव् अहंकार् । कहै मलूक् या ते अधिक्, नाहीं और् विचार् ॥ नमो जगत् पति जगत् गुरु, जगन्नाथ् जग् रा‌इ । जगजीवन् जग् हित् करन्, जग् मनि सो जदु रा‌इ ॥ अभ्यास् बिना पावै नहीं, सत् चित् ब्रह्म् बिला‌इ । ताते ब्रह्म् अभ्यास् से, ब्रह्म् भ‌उ हो‌इ जा‌इ ॥ मन् याके हैं रूप् द्वै, एक् कनक् एक् नार् । दो‌उ सेति प्रीति तजि, हरि पद् करु प्यार् ॥ रे मन् सूता क्या करै, उठि भज् चरन् मुरारि । जैसा सपना रैन् का, तैंसा यह् संसार् ॥ राम् सुमिरि रे मना, जो चाहत् कुसलात् । अटके जग् जंजाल् में, जन्म् सिरानो जात् ॥ हम् जानत् तीरथ् बड़े, तीरथ् हरि की आस् । जिन् के हिरदै हरि बसैं, कोटि तिरथ् तिन् पास् ॥ जब् आ‌ए तुम् जगत् में, तब् हँसिया सब् कोय् । अब् तुम् ऐसी कर् चलो, पाछे हँसी न् कोय् ॥ कल्पि डाहि जो लेत् है, या तें पाप् न् और् । कह् मलूक् तेहि जीव् को, तीन् लोक् नहि ठौर् ॥ जो मन् गया तो जान् दे, दृढ़् करि राखु सरीर् । बिन् जिह् चढ़ी कमान् का, क्या लागेगा तीर् ॥ गौतम् नारि बड़ी पतिबरता, बहुत् कीन्हे दाना । करनी करि बैकुंठ् न् पैठी, काहे भ‌ई पषाना ॥ तन् मन् धन् नहिं आपना, नहिं सुत् और् नारी । बिछुरत् बार् न् लाग‌ई, जिय् देखु बिचारी ॥