( मलिक मोहम्मद जायसी )

 

आखरी कलाम

     

पहिले नावँ दै‌उ कर लीन्हा जे‌इ जि‌उ दीन्ह, बोल मुख कीन्हा

दीन्हेसि सिर जो सँवारै पागा दीन्हेसि कया जो पहिरै बागा

दीन्हेसि नयन जोति, उजियारा दीन्हेसि देखै कहँ संसारा

दीन्हेसि स्रवन बात जेहि सुनै दीन्हेसि बुद्धि, ज्ञान बहु गुनै

दीन्हेसि नासिक लीजै बासा दीन्हेसि सुमन सुगंध बिरासा

दीन्हेसि जीभ बैन रस भाखै दीन्हेसि भुगुति, साध सब राखै

दीन्हेसि दसन सुरंग कपोला दीन्हेसि अधर जे रचै तँबोला

 

दीन्हेसि बदन सुरूप रँग, दीन्हेसि माथे भाग

देखि दयाल, ‘मुहमद’, सीस ना‌इ पद लाग ॥१॥

 

दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ दीन्हेसि भुजादंड, बल बाहाँ

दीन्हेसि हिया भोग जेहि जमा दीन्हेसि पाँच भूत, आतमा

दीन्हेसि बदन सीत घामू दीन्हेसि सुक्ख नींद बिसरामू

दीन्हेसि हाथ चाह जस कीजै दीन्हेसि कर पल्लव गहि लीजै

दीन्हेसि रहस कूद बहुतेरा दीन्हेसि हरष हिया बहु मेरा

दीन्हेसि बैठक आसन मारै दीन्हेसि बूत जो उठें सँभारै

दीन्हेसि सबै सँपूरन काया दीन्हेसि दो‌इ चलै कहँ पाया

 

दीन्हेसि नौ नौ फाटका, दीन्हेसि दसवँ दुवार

सो अस दानि ‘मुहमद’, तिन्ह कै हौं बलिहार ॥२॥

 

मरम नैन कर अँधरै बूझा तेहि बिसरे संसार सूझा

मरम स्रवन कर बहिरै जाना जो सुनै, किछु दीजै साना

मरम जीभ कर गूँगै पावा साध मरै, पै निकर नावाँ

मरम बाहँ कै लूलै चीन्हा जेहि बिधि हाथन्ह पाँगुर कीन्हा

मरम कया कै कुस्टी भेंटा नित चिरकुट जो रहै लपेटा

मरम बैठ उठ तेहि पै गुना जो रे मिरिग कस्तूरी पहाँ ॥(?)

मरम पावँ कै तेहि पै दीठा हो‌इ अपाय भु‌इँ चलै ब‌ईठा

 

अति सुख दीन्ह बिधातै, औ सब सेवक ताहि

आपन मरम ‘मुहमद’, अबहूँ समुझ, कि नाहि ॥३॥

 

भा औतार मोर नौ सदी तीस बरीस ऊपर कबि बदी

आवत उधत चार बिधि ठाना भा भूकंप जगत अकुलाना

धरती दीन्ह चक्र बिधि ला‌ईं फिरै अकास रहँट कै ना‌ईं

गिरि पहार मेदिनि तस हाला जस चाला चलनी भरि चाला

मिरित-लोक ज्यों रचा हिंडोला सरग पताल पवन खट डोला

गिरि पहार परबत ढहि ग‌ए सात समुद्र कीच मिलि भ‌ए

धरती फाटि, छात भहरानी पुनि भ‌इ मया जौ सिष्टि समानी

 

जो अस खंभन्ह पा‌इ कै, सहस जीभ गहिरा‌इँ

सो अस कीन्ह ‘मुहमद’, तोहि अस बपुरे का‌इँ ॥४॥

 

सूरुज (अस) सेवक ताकर अहै आठौ पहर फिरत जो रहै

आयसु लि‌ए रात दिन धावै सरग पताल दुवौ फिरि आवै

दगधि आगि महँ हो‌इ अँगारा तेहि कै आँच धिकै संसारा

सो अस बपुरै गहनै लीन्हा धरि बाँधि चँडालै दीन्हा

गा अलोप हो‌इ, भा अँधियारा दीखै दिनहि सरग महँ तारा

उवतै झप्पि लीन्ह, घुप चाँपै लाग सरब जि‌उ थर थर काँपै

जि‌उ कहँ परे ज्ञान सब झूठै तब हो‌इ मोख गहन जौ छूटै

 

ताकहँ एता तरासै जो सेवक अस नित

अबहुँ डरसि ‘मुहमद’ काह रहसि निहचिंत ॥५॥

 

ताकै अस्तुति कीन्हि जा‌ई कोने जीभ मैं करौं ब्ढा‌ई ?॥

जगत पताल जो सैते को‌इ लेखनी बिरिख, समुद मसि हो‌ई॥

लागै लिखै सिष्टि मिलि जा‌ई समुद घटै, पै लिखि सिरा‌ई

साँचा सो‌इ और सब झूठे ठावँ कतहुँ ओहि कै रूठे

आयसु इबलीस हु जौ टारा नारद हो‌इ नरक महँ पारा

सौ दु‌इ कटक, कह‌उ लखि घोरा फर‌ऊँ रोधि नील महँ बोरा

जौ शदाद बैकुंठ सँवारा पैठत पौरि बीच गहि मारा

 

जो ठाकुर अस दारुन, सेवक त‌इँ निरदोख

माया करै ‘मुहम्मद’ तौ पै हो‌इहि मोख ॥६॥

 

रतन एक बिधनै अवतारा नावँ ‘मुम्मद’ जग उजियारा

चारि मीत चहुँदिसि गजमोती माँझ दिपै मनु मानिक जोती

जेहि हित सिरजा सात समुंदा सातहु दीप भ‌ए एक बुंदा

तर पर चौदह भुवन उसारे बिच बिच खंड बिखंड सँवारे

धरती गिरि मेरु पहारा सरग चाँद सूरज तारा

सहस अठारह दुनिया सिरैं आवत जात जातरा करैं

जे‌इ नहिं लीन्ह जनम महँ ना‌ऊँ तेहहि कहँ कीन्ह नरक महँ ठा‌ऊँ

 

सो अस दे‌ऊ राखा, जेहि कारन सब कीन्ह

दहुँ तुम काह ‘मुहम्मद’ एहि पृथिवी चित दीन्ह ॥७॥

 

बाबर साह छत्रपति राजा राज पाट उन कहँ बिधि साजा

भुलुक सुलेमाँ कर ओहि दीन्हा अदल दुनी ऊमर जस कीन्हा

अली केर जस कीन्हेसि खाँडा लीन्हेसि जगत समुद भरि डाँडा

बल हजमा कर जैस सँभारा जो बरियार उठा तेहि मारा

पहलवान ना‌ए सब आदी रहा कतहुँ बाद करि बादी

बड परताप आप तप साधे धरम के पंथ द‌ई चित बाँधे

दरब जोरि सब काहुहि दि‌ए आपुन बिरह आ‌उ जस लि‌ए

 

राजा हो‌इ करै, सब छाँड, जगत महँ राज

तब अस कहैं ‘मुहम्मद’, वै कीन्हा किछु काज ॥८॥

 

मानिक एक पा‌ए‌उँ उजियारा सैयद असरफ पीर पियारा

जहाँगीर चिस्ती निरमरा कुल जग महँ दीपक बिधि धरा

निहंग दरिया जल माहाँ बूडत कहँ धरि काढत बाहाँ

समुद माहँ जो बाहति फिर‌ई लेतै नावँ सौहँ हो‌इ तर‌ई

तिन्ह घर हौ मुरीद, सो पीरू सँवरत बिनु गुन लावै तीरू

कर गहि धरम पंथ देखरावा गा भुला‌इ तेहि मारग लावा

जो अस पुरुषहि मन चित लावै इच्छा पूजै, आस तुलावै

 

जौ चालिस दिन सेवै, बार बुहारै को‌इ

दरसन हो‌इ ‘मुहम्मद’, पाप जा‌इ सब धो‌इ ॥९॥

 

जायस नगर मोर अस्थानू नगर नावँ आदि उदयानू

तहाँ दिवस दस पहुने आ‌ए‌उँ भा बैराग बहुत सुख पा‌ए‌उँ

सुख भा, सोचि एक दिन मानौं ओहि बिनु जिवन मरन कै जानौं

नैन रूप सो ग‌ए‌उ समा‌ई रहा पूरि भर हिरदय को‌ई

जहवैं देखौं तहँवै सो‌ई और आव दिस्टि तर को‌ई

आपुन देखि देखि मन राखौं दूसर नाहिं, सो कासौं भाखौं

सबै जगत दरपन कै बेखा आपन दरसन आपुहि देखा

 

अपने कौकुत कारन, मीर पसारिन हाट  

मलिक मुहम्मद बिहनै, हो‌इ निकसिन तेहि बाट ॥१०॥

 

धूत एक मारत गनि गुना कपट रूप नारद करि चुना

‘नावँ साधु’ साधि कहवावै तेहि लगि चलै जौ गारी पावै

भाव गाँठि अस मुख, कर भाँजा कारिख तेल घालि मुख माँजा

परतहि दीठि छरत मोहिं लेखे दिनहिं माँझ अँधियर मुख देखे

लीन्हे चंग राति दिन रह‌ई परपँच कीन्ह लोगन महँ चह‌ई

भा‌इ बंधु महँ ला‌ई लावै बाप पूत महँ कहै कहावै

मेहरी भेस रैनि के आवै तरप्ड कै पूरुख ओनवावै

 

मन मैली कै ठगि, ठगै, ठग पायौ काहु

वरजे‌उ सबहिं ‘मुहम्मद’, असि जिन तुम पतियाहु ॥११॥

 

अंग च्ढावहु सूरी भारा जा‌इ गहौ तब चंग अधारा

जौ काहू सौं आनि चिहूँटै सुनहु मोर बिधि कैसे छूटै

उहै नावँ करता कर ले‌ऊ पढौ पलीता धू‌आँ दे‌ऊ

जौ यह धुवाँ नासिकहि लागै मिनती करै उठि उठि भागै

धरि बा‌ईं लट सीस झकोरै करि पाँ तर, गहि हाथ मरोरै

तबहि सँकोच अधिक ओहि हौवै ‘छाँडहु, छाँडहु!’ कहि कै रोवैं

धरि बाहीं लै थुवा उडावै तासौं डरै जो ऐस छोडावै

 

है नरकी पापी, टेढ बदन आँखि

चीन्हत उहै ‘मुहम्मद’, झूठ भरी सब साखि ॥१२॥

 

नौ सै बरस छतीस जो भ‌ए तब एहि कथा आखर कहे

देखौं जगत धुध कलि माहाँ उवत धूप धरि आवत छाहाँ

यह संसार सपन कर लेखा माँगत बदन नैन भरि देखा

लाभ, दि‌उ बिनु भोग, न पा‌उब परिहि डाढ़ जहँ मूर गँवा‌उब

राति सपन जागि पछिताना ना जानौ कब हो‌इ बिहाना

अस मन जानि बेसाहहु सो‌ई मूर घटै, लाभ जेहि हो‌ई

ना जानेहु बाढत दिन जा‌ई तिल तिल घहै आ‌उ नियरा‌ई

 

अस जिन जानेहु बढत है, दिन आवत नियरात

कहै सो बूझि ‘मुहम्मद’ फिर कहौं असि बात ॥१३॥

 

जबहिं अंत कर परलै आ‌ई धरमी लोग रहै ना पा‌ई

जबहीं सिद्ध साधु ग‌ए पारा तबहीं चलै चोर बटपारा

जा‌इहि मया मोह सब केरा मच्छ रूप कै आ‌इहि बेरा

उठिहैं पंडित बेद पुराना दत्त सत्त दो‌उ करिहिं पयाना

धूम बरन सूरुज हो‌इ जा‌ई कृस्न बरन सब सिष्टि दिखा‌ई ॥

दधा पुरुब दिसि उ‌इहै जहाँ पुनि फिरि आ‌इ अथ‌इहै तहाँ

च्ढ गदहा निकसै धरि जालू हाथ खंड हो‌इ, आवै कालू

 

जो रे मिलै तेहि मारै, फिरि फिरि आ‌इ कै गाज

सबही मारि ‘मुहम्मद’, भूज अरहिता राज ॥१४॥

 

पुनि धरती कहँ आयसु हो‌ई उगिलै दरब, ले‌इ सब को‌ई  

‘मोर मोर’, करि उठिहैं झारी आपु आपु महँ करिहैं मारी

अस को‌ई जानै मन माहाँ जो यह सँचा अहै सो कहाँ

सैंति सैंति ले‌इ ले‌इ घर भरहीं रहस कूद अपने जि‌उ करहीं

खनहिं उतंग, खनहि फिर साँती नितहि हुलंब उठै बहु बाँती

पुनि एक अचरज सँचरै आ‌ई नावँ ‘मजारी’ भँवै बिला‌ई

ओहि के सूँघे जियै को‌ई जो मरै तेहि भक्खै सो‌ई

 

सब संसार फिरा‌इँ औ, लावै गहिरी घात

उनहूँ कहै ‘मुहम्मद’ बार लागिहि जात ॥१५॥

 

पुनि मैका‌इल आयसु पा‌ए उन बहु भाँति मेघ बरसा‌ए

पहिले लागै परै अँगारा धरती सरग हो‌इ उजियारा

लागी सबै पिरथिवीं जरै पाछे लागे पाथर परै

सौ सौ मन कै एक एक सिला चलै पिंड घुटि आवैं मिला

बजर गोट तस छूटैं भारी टूटैं रूख बिरुख सब झारी

परत धमाकि धरति सब हालै उधिरत उठै सरग लौं सालै

अधाधार बरसै बहु भाँती लागि रहै चालिस दिन राती

 

जिया जंतु सब मरि घटे जित सिरजा संसार

को‌इ है ‘मुहम्मद’, हो‌इ बीता संघार ॥१६॥

 

जिबर‌ईल पा‌उब फरमानू आ‌इ सिस्टि देखब मैदानू

जियत रहा जगत के‌उ ठाढा मारा झोरि कचरि सब गाढा

मरि गंधाहिं, साँस नहिं आवै उठै बिगंध, स्डा‌इँध आवैं

जा‌इ दे‌ऊ से करहु बिनाती कहब जा‌इ जस देखब भाँती

देखहु जा‌इ सिस्टि बेवहारू जगत उजाड सून संसारू

अस्ट दिसा उजारि सब मारा को‌इ रहा नावँ लेनिहारा

मारि माछ जस पिरथिवीं पाटी परै पिछानि न, दीखे माटी

 

सून पिरथिवीं हो‌इग‌ई, दहुँ धरती सब लीप

जेतनी सिस्टि ‘मुहम्मद’, सबै भा‌इ जल दीपि ॥१७॥

 

मका‌ईल पुनि कहब बुला‌ई बरसहु मेघ पिरथिवीं जा‌ई

उनै मेघ भरि उठिहैं पानी गरजि गरजि बरसहिं अतवानी

झरी लागि चालिस दिन राती घरी निबुसै एकहु भाँती

छूटि पानि परलय की ना‌ईं च्ढा छापि सगरि‌उँ दुनिया‌ईं

बूडहिं परबत मेरु पहारा जल हुलि उमडि चलै असरारा

जहँ लगि मगर माछ जित हो‌ई ले‌इ बहा‌इ जा‌इहि भु‌इँ धो‌ई

 

सून पिरथिवीं हो‌इहि, बूझे हँसै ठठा‌इ

एतनि जो सिस्टि ‘मुहम्मद’, सो कहँ ग‌ई हेरा‌इ ॥१८॥

 

पुनि इसराफीलहि फरमा‌ए फूँके, सब संसार उडा‌ए

दै मुख सूर भरै जो साँसा डोलै धरती, लपत अकासा

भुवन चौदहो गिरि मनु डोला जानौ घालि झुलाव हिंडोला

पहिले एक फूँक जो आ‌ई ऊँच नीच एक सम हो‌इ जा‌ई

नदी नार सब जैहै पाटी अस हो‌इ मिले ज्यों ठाढी माटी

दूसरि फूँक जो मेरू उडहै परबत समुद्र एक हो‌इ जैहैं

चाँद सुरुज तारा घट टूटै परतहि खंभ सेस घट फूटै

 

तिसरे बजर महा‌उब, अस धु‌इँ लेब महा‌इ

पूरब पछि‌उँ ‘मुहम्मद’, एक रूप हो‌इ जा‌इ ॥१९॥

 

अजरा‌इल कहँ बेगि बोलावै जी‌उ जहाँ लगि सबै लियावै

पहिले जि‌उ जिबरैल ले‌ई लोटि जी‌उ मैका‌इल दे‌ई

पुनि जि‌उ दे‌इहि इसराफीलू तीनिहु कहँ मारै अजरा‌ईलू

काल फिरिस्तिन केर जौ हो‌ई को‌इ जाग, निसि असि हो‌ई

पुनि पूछब जम? सब जि‌उ लीन्हा  एकौ रहा बाँचि जो दीन्हा ?॥

सुनि अजरा‌इल आगे हो‌इ आ‌उब उत्तर देब, सीस भु‌इँ ना‌उब

आयसु हो‌इ करौं अब सो‌ई की हम, की तुम , और को‌ई

 

जो जम आन जि‌उ लेत हैं, संकर तिनहू कर जि‌उ लेब

सो अवतरें ‘मुहम्मद’, देखु तहुँ जि‌उ देब ॥२०॥

 

पुनि फरमा‌ए आपु गोसा‌ईं तुमहि दै‌उ जिवा‌इहि नाहीं

सुनि आयसु पाछे कहँ ढा‌ए तिसरी पौरि नाँघि नहिं पा‌ए

परत जी‌उ जब निसरन लागै हो‌इ बड कष्ट, घरी एक जागै

प्रान देत सँवरै मन माहाँ उवत धूप धरि आवत छाहाँ

जस जि‌उ देत मोहिं दुख हो‌ई ऐसै दुखै अहा सब को‌ई

जौ जनत्यं अस दुख जि‌उ देता तौ जि‌उ काहू केर लेता

लौटि काल तिनहूँ कर होवै आ‌इ नींद, निधरक हो‌इ सोवै

 

भंजन, ग्ढन सँवारन जिन खेला सब खेल

सब कहँ टारि ‘मुहम्मद’,अब हो‌इ रहा अकेल ॥२१॥

 

चालिस बरस जबहिं हो‌इ जैहै उठिहि मया, पछिले सब ऐहैं

मया मोह कै किरपा आ‌ए आपहि काहिं आप फरमा‌ए

मैं संसार जो सिरजा एता मोर नावँ को‌ई नहिं लेता

जेतने परे सब सबहि उठावौं पुलसरात कर पंथ रेंगावौं

पाछे जि‌ए पूछौं अब लेखा नैन माँह जेता हौं देखा

जस जाकर सरवन मैं सुना धरम पाप, गुन औगुन गुना

कै निरमल कौसर अन्हवावौं पुनि जी‌उन्ह बैकुंठ पठावौं

 

मरन गँजन घन हो‌इ जस, जस दुख देखत लोग

तस सुख हो‌इ ‘मुहम्मद’, दिन दिन मानैं भोग ॥२२॥

 

पहिले सेवक चारि जिया‌उब तिन्ह सब काजै काज पठा‌उब

जिबरा‌इल मैका‌ईल असराफील अजरा‌ईलू

जिबर‌ईल पिरथिवीं महँ आ‌ए आ‌इ मुहम्मद कहँ गोहरा‌ए

जिबर‌ईल जग आ‌इ पुकारब नावँ मुहम्मद लेत हँकारब

हो‌इहैं जहाँ मुहम्मद ना‌ऊँ कह‌उ लाख बोलिहैं एक ठा‌ऊँ

ढूढत रहै, कहहुँ नहिं पावै फिरि कै जा‌इ मारि गोहरावै

कहै "गोसा‌इँ ! कहाँ वै पावौं लखन बोलै जौ रे बोलावौं

 

सब धरती फिरि आ‌ए‌उँ, जहाँ नावँ सो ले‌उँ

लाखन उठैं ‘मुहम्मद’, केहि कहँ उत्तर दे‌उँ ?’॥२३॥

 

जिबरा‌इल पुनि आयसु पावै सूँघे जगत ठाँव सो पावै

बास सुबास ले‌उ हैं जहाँ नाव रसूल पुकारसि तहाँ

जिबरा‌इल फिरि पिरथिवीं आ‌ए सूँघत जगत ठाँव सो पा‌ए

उठहु मुहम्मद, होहु ब्ड नेगी देन जोहार बोलावहिं बेगी

बेगि हँकारे‌उ उमत समेता आवहु तुरत साथ सब लेता

एतने बचन ज्योंहि मुख काढे सुनत रसूल भ‌ए उठि ठाढे

जहँ लगि जी‌उ मुकहि सब पा‌ए अपने अपने पिंजरे आ‌ए

 

क‌इ‌उ जुगन के सोवत उठे लोग मनो जागि

अस सब कहैं ‘मुहम्मद’, नैन पलक ना लागि ॥२४॥

 

उठत उमत कहँ आलस लागै नींद भरी सोवत नहिं जागै

पौढत बार हम कहँ भ‌ए‌ऊ अबहिंन अवधि आ‌इ कब ग‌ए‌ऊ

जिबरा‌इल तब कहब पुकारी अबहूँ नींद ग‌ई तुम्हारी

सोवत तुमहिं क‌इ‌उ जुग बीते ऐसे तौ तुम मोहे, न चीते

क‌इ‌उ करोरि बरस भु‌इँ परे उठहु बेगि मुहम्मद खरे

सुनि कै जगत उठिहि सब झारी जेतना सिरजा पुरुष नारी

नँगा नाँग उठिहै संसारू नैना हो‌इहैं सब के तारू

 

को‌इ केहु तन हेरै, दिस्टि सरग सब केरि

ऐसे जतन ‘मुहम्मद’, सिस्टि चलै सब घेरि ॥२५॥

 

पुनि रसूल जैहैं हो‌इ आगे उम्मत चलि सब पाछे लागै

अंध गियान हो‌इ सब केरा ऊँच नीच जहँ हो‌इ अभेरा

सबही जियत चहैं संसारा नैनन नीर चलै असरारा

सो दिन सँवरि उमत सब रोवै ना जानौं आगे कस होवै

जो रहै, तेहि का यह संगा  मुख सूखै तेहि पर यह दंगा

जेहि दिन कहँ नित करत डरावा सो‌इ दिवस अब आगे आवा

जौ पै हमसे लेखा लेबा का हम कहब, उतर का देबा

 

एत सब सँवरि कै मन महँ चहैं जा‌इ सो भूलि

पैगहि पैग ‘मुहम्मद’, चित्त रहै सब झुलि ॥२६॥

 

पुल सरात पुनि हो‌इ अभेरा लेखा लेब उमत सब केरा

एक दिसि बैठि मुहम्मद रो‌इहैं जिबर‌ईल दूसर दिसि हो‌इहैं

वार पार किछु सूझत नाहीं दूसर नाहिं, को टैकै बाहीं? 

तीस सह्स्र कोस कै बाटा अस साँकर जेहि चलै चाँटा

बारहु तें पतरा अस झीना ख्डग धार से अधिकौ पैना

दो‌उ दिसि नरक कुंड हैं भरे खोज पा‌उब तिन्ह महँ परे

देखत काँपै लागै जाँघा सो पथ कैसे जैहै नाँघा

 

तहाँ चलत सब परखब, को रे पूर, को ऊन

अबहिं को जान ‘मुहम्मद’, भरे पाप पून ॥२७॥

 

जो धरमी हो‌इहि संसारा चमकि बीजु अस जा‌इहि पारा

बहुतक जनौं तुरँग भल ध‌इहैं बहुतक जानु पखेरु उड‌इहैं

बहुतक चाल चलै महँ ज‌इहैं बहुतक मरि मरि पावँ उठ‌इहैं

बहुतक जानु पखेरु उड‌इहैं पवन कै ना‌ईं तेहि महँ ज‌इहैं

बहुतक जानौं रेंगहिं चाँटी बहुतक बहैं दाँत धरि माटी

बहुतक नरक कुंड महँ गिरहीं बहुतक रकत पीब महँ परहीं

जेहि के जाँघ भरोस हो‌ई सो पंथी निभरोसी रो‌ई

 

परै तरास सो नाँघत, को‌इ रे वार, को‌इ पार

को‌इ तिर रहा ‘मुहम्मद’, को‌इ बूडा मझधार ॥२८॥

 

लौटि हँकारब वह तब भानू तपै कहैं हो‌इहि फरमानू

पूछब कटक जेता है आवा को सेवक, को बैठे खावा 

जेहि जस आ‌उ जियन मैं दीन्हा तेहि तस चाहौं लीन्हा

अब लगि राज देस कर भूजा अब दिन आ‌इ लेखा कर पूजा

छः मास कर दिन करौं आजू आ‌उ ले‌उँ देखौं साजू

से चौराहै बैठे आव एक एक जन कँ पूछि पकरावै

नीर खीर हुँत काढब छानी करब निनार दूध और पानी

 

धरम पाप फरिया‌उब, गुन औगुन सब दोख

दुखी होहु ‘मुहम्मद’, जोखि लेब धरि जोख ॥२९॥

 

पुनि कस हो‌इहि दिवस मासू सूरुज आ‌इ तपहिं हो‌इ पासू

कै स‌उँहैं नियरे रथ हाँकै तेहिकै आँच गूद सिर पाकै

बजरागिनि अस लागै तैसे बिलखैं लोग पियासन बैसे

उनै अगिन अस बरसै घामू भूँज देह, जरि जावै चामू

जे‌इ किछु धरम कीन्ह जग माँहा तेहि सिर पर किछु आवै छाहाँ

धरिमिहि आनि पिया‌उब पानी पापी बपुरहि छाहँ पानी

जो राजता सो काज आवै इहाँ दीन्ह उहाँ सो पावै

 

जो लखपती कहावै, लहैन कोडी आधि

चौदह धजा ‘मुहम्मद’, ठाढ करहिं सब बाँधि ॥३०॥

 

सवा लाख पैगंबर जेते अपने अपने पा‌एँ तेते

एक रसूल बैठहिं छाहाँ सबही धूप लेहिं सिर माहाँ

घामै दुखी उमत जेहि केरी सो का मानै सुख अवसेरी 

दुखी उमत तौ पुनि मैं दुखी तेहि सुख हो‌इतौ पुनि मैं सुखी

पुनि करता कै आयसु हो‌ई उमत हँकारु लेखा मोहिं दे‌ई

कहब रसूल कि आयसु पावौं पहिले सब धरमी लै आवौं

हो‌इ उतर ‘तिन्ह हौं ना चाहौं पापी घालि नरक महँ बाहौं

 

पाप पुन्नि कै तखरी हो‌इ चाहत है पोच

अस मन जानि ‘मुहम्मद’, हिरदै माने‌उ सोच ॥३१॥

 

पुनि जैहैं आदम के पासा ‘पिता! तुम्हारि बहुत मोहिं आसा

उमत मोरि गाढे है परी भा दान, लेखा का धरी 

दुखिया पूत होत जो अहै सब दुख पै बापै सौं कहै

बाप बाप कै जो कछु खाँगै तुमहिं छाँड कासौं पुनि माँगै 

तुम जठेर पुनि सबहिन्ह केरा अहै सतति ,मुख तुम्हरै हेरा

जेठ जठेर जो करिहैं मिनती ठाकुर तबहीं सुनिहैं मिनती

जा‌इ दे‌उ सों बिनवौ रो‌ई मुख दयाल दाहिन तोहि हो‌ई

 

कहहु जा‌इ जस देखे‌उ, जेहि होवै उदघाट

बहु दुख दुखी ‘मुहम्मद’, बिधि ! संकट तेहि काट’ ॥३२॥

 

सुनहु पूत! आपन दुख कह‌ऊँ हौं अपने दुख बा‌उर रह‌ऊँ

हो‌इ बैकुंठ जो आयसु ठेले‌उँ दूत के कहे मुख गोहूँ मेले‌उ

दुखिया पेट लागि सँग धावा काढ बिहिस्त से मैल ओढावा

परल जा‌इ मंडल संसारा नैन सूझे, निसि अधियारा

सकल जगत मैं फिरि फिरि रोवा जी‌उ अजान बाँधि कै खोवा

भ‌एँ उजियार पिरथिवीं ज‌इहौं गोसा‌इँ कै अस्तुति कहिहौं

लौटि मिलै जौ हौवा आ‌ई तौ जि‌उ कहँ धीरझ हो‌इ जा‌ई

 

तेहि हुँत लाजि उठै जि‌उ, मुहँ सकौं दरसा‌इ

सो मुह ले‌इ मुहम्मद ! बात कहौं का जा‌इ ?॥३३॥

 

पुनि जैहैं मूसा दोहा‌ई बंधू ! मोहिं उपकरू आ‌ई

तुम कहँ बिधिना आयसु दीन्हा तुम नेरे हो‌इ बातैं कीन्हा

उम्मत मोरि बहुत दुख देखा भा दान, माँगत है लेखा

अब जौ भा‌इ मोर तुम अहौ एक बात मोहिं कारन कहौ

तुम अस ठटै बात का को‌ई सो‌ई कहौं बात जेहि हो‌ई

गाढे मीत ! कहौं का काहू  कहहु जा‌इ जेहि हो‌इ निबाहू

तुम सँवारि कै जानहु बाता मकु सुनि माया करै बिधाता

 

मिनती करहु मोर हुँत, सीस ना‌इ कर जोरि।

हा हा करै ‘मुहम्मद’, उमत दुखी है मोरि ॥३४॥

 

सुनहु रसूल बात का कहौं हौं अपने दुख बा‌उर रहौं

कै कै देखे‌उँ बहुत ढिठा‌ई मुँह गरुवाना खात मिठा‌ई

पहिले मो कहँ आयसु दीन्हा फर‌ऊँ से मैं झगरा कीन्हा

रोधि नील डारेसि झुरा फुर भा झूठ, झूठ भा फुरा

पुनि देखै बैकुंठ पठा‌ए‌उ एकौ दिसि कर पंथ पा‌ए‌उँ

पुनि जो मो कहँ दरसन भ‌ए‌ऊ कोह तूर रावट हो‌इ ग‌ए‌ऊ

भाँति अनेक मैं फिर फिर जापा हर दावँन कै लीन्हेसि झाँपा

 

निरखि नैन मैं देखौं, कतहुँ परै नहिं सूझि

रहौ लजा‌इ, मुहम्मद! बात कहौं का बूझि’?॥३५॥

 

दौरि दौरि सबही पहँ जैहैं उतर दे‌इ सब फिरि बहरैहैं

ईसा कहिन कि कस ना कहत्यों जौ किछु कहे उत्तर पव्त्थों

मैं मु‌ए मानुस बहुत जियावा बहुतै जि‌उ दान दियावा

इब्राहिम कह, कस ना कहत्यों बात कहे बिन मैं ना रहत्यों

मोसौं खेलु बंधु जो खेला सर रचि बाँधि अगिन महँ मेला

तहाँ अगिन हुँत भ‌इ फुलवारी अपडर डरौं, न परहिं सँभारी

नूह कहिन, जप परलै आवा सब जग बूड, रहे‌उँ च्ढ नावा

 

काह कहै खि... से, सबै ओढा‌उब भार

जस कै बैन मुहम्मद, करू आपन निस्तार ॥३६॥

 

सबै भार अस ठेलि ओढा‌उब फिर फिर कहब, उतर ना पा‌उब

पुनि रसूल जैहै दरबारा पैग मारि भु‌इँ करब पुकारा

तै सब जानसि एक गोसा‌ईं को‌इ आव उमत के ता‌ई

जेहि सौ कहौं सो चुप हो‌इ रहै उमत ला‌इ केहु बात कहै

मोहिं अस तहीं लाग करतारा तोहिं हो‌इ भल सो‌इ निस्तारा

जो दुख चहसि उमत कहँ दीन्हा सो सब मैं अपने सिर लीन्हा

 

लेखि जोखि जो आवै मरन गँजन दुख दाहु

सो सब सहै ‘मुहम्मद’, दुखी कर जनि काहु ॥३७॥

 

पुन रिसा‌इ कै कहै गोसा‌ईं फातिम कहँ ढूँढहु दुनिया‌ईं

का मोसौं उन झगर पसारा हसन हुसैन कहौ को मारा

ढूँढे जगत कतहुँ ना पैहैं फिरि कै जा‌इ मारि गोहरैहैं

ढूँढ जगत दिनिया सब आ‌ए‌उँ फातिम खोज कतहुँ ना पा‌ए‌उँ

आयसु हो‌इ, अहैं पुनि कहाँ’ । उठा नाद हैं धरती महाँ

मूँदै नैन सकल संसारा बीबी उठैं, करै निस्तारा

जो को‌ई देखै नैन उघारी तेहि कहँ छार करौं धरि जारी ॥

 

आयसु हो‌इहि दे‌उ कर , नैन रहै सब झाँपि

एक ओर डरैं ‘मुहम्मद’, उमत मरै डरि काँपि ॥३८ ॥

 

उट्ठिन बीबी तब रिस किहें हसन हुसेन दुवौ सँग लीहें

तैं करता हरता सब जानसि झूँठै फुरै नीक पहिचानसि

हसन हुसेन दुवौ मोर वारे दुनहु यजीद कौन गुन मारे ? ॥

पहिले मोर नियाव निबारू तेहि पाछे जेतना संसारू

समुझें जी‌उ आगि महँ दह‌ऊँ देहु दादि तौ चुप कै रह‌ऊँ

नाहि दे‌उँ सराप रिसा‌ई मारौं आहि अर्श जरि जा‌ई

 

बहु संताप उठै निज, कैसहु समुझि जा‌इ

बरजहु मोह ‘मुहम्मद’, अधिक उठै दुख दा‌इ ॥३९॥

 

पुनि रसूल कहँ आयसु हो‌ई फातिम कहँ समुझावहु सो‌ई

मारै आहि अर्श जरि जा‌ई तेहि पाछे आपुहि पछिता‌ई

जो नहिं बात करै बिषादू जानौ मोहिं दीन्ह परसादू

जो बीबी छाँडहिं यह दोखू तौ मैं करौं उमत कै मोखू

नाहिं घालि नरक महँ जारौं लौटि जिया‌इ मु‌ए पर मारौं

अग्नि खंभ देखहु जस आगे हिरकत छार हो‌इ तेहि लागे

चहुँ दिसि फेरि सरग लै लावौं मँगरन्ह मारौं, लोह चटावौं

 

तेहि पाछे धरि मारौं, घालि नरक के काँठ

बीबी कहँ समुझावहु, जौ रे उमत कै चाँट ॥४०॥

 

पुनि रसूल तलफत तहँ जैहैं बीबिहि बार बार समुझैहैं

बीबी कहब, ‘घाम कत सहहू  कस ना बैठि छाहँ महँ रहहू 

सब पैगंबर बैठे छाहाँ तुम कस तपौ बजर अस माहाँ 

कहब रसूल छाँह का बैठौं ? उमत लागि धूपहु नहिं बैठौं

तिन्ह सब बाँधि घाम महँ मेले का भा मोरे छाहँ अकेले

तुम्हरे कोह सबहि जो मरै समुझहु जी‌उ, तबहि निस्तरै

जो मोहिं चहौ निवारहु कोहू तब बिधि करै उमत पर छोहू ॥

 

बहु दुख देखि पिता कर, बीबी समुझा जी‌उ

जा‌इ मुहम्मद बिनवा , ठाढ पाग कै गी‌उ ॥४१॥

 

तब रसूल के कहें भ‌इ माया जिन चिंता मानहु, भ‌इ दाया

जौ बीबी अबहूँ रिसिया‌ई सबहि उमत सिर आ‌इ बिसा‌ई

अब फातिम कहँ बेगि बोलावहु दे‌इ दाद तौ उमत छोडावहु  

फातिम आ‌इ कै पार लगावा धरि यजीद दोजख महँ गवा

अंत कहा, धरि जान से मारै जि‌उ दे‌इ दे‌इ पुनि लौटि पछारै

तस मारब जेहि भु‌इँ ग्ड जा‌ई खन खन मारै लौटि जिया‌ई

बजर-अगिनि जारब कै छारा लौटि दहै जस दहै लोहारा

 

मारि मारि घिसियावैं, धरि दोजख महँ देब

जेतनी सिस्टि ‘मुहम्मद’, सबहि पुकारै लेब ॥४२॥

 

पुनि सब उम्मत लेब बुला‌ई हरू गरू लागब बहिरा‌ई

निरखि रहौती काढब छानी करब निनार दूध पानी

बाप पूत, न पूत बापू पा‌इहि तहाँ पुन्नि पापू

आपहि आप आ‌इकै परी को‌उ को‌उ धरहरि करी

कागज काढ लेब सब लखा दुख सुख जो पिरथिवी महँ देखा

पुन्नि पियाला लेखा माँगब उतर देत उन पानी खाँगब

नैन देखा स्रवन सुना कहब, करब, औगुन गुना

 

हाथ, पाँव, मुख, काया, स्रवन, सीस आँखि

पाप चपै ‘मुहम्मद’ आ‌इ भरैं सब साखि ॥४३॥

 

देह रोवाँ बैरी हो‌इहैं बजर-बिया एहि जी‌उ के बो‌इहैं

पाप पुन्नि निरमल कै धो‌उब राखब पुन्नि, पाप सब खो‌उब

पुनि कौसर पठ‌उब अन्हवावै जहाँ कया निरमल सब पावै

बुडकी देब देह सुख लागी पलुहब उठि, सोवत अस जागी

खोरि नहा‌इ धो‌इ सब दुंदू हो‌इ निकरहिं पूनि‌उ कै चंदू

सब सरीर सुबास बसा‌ई चंदन कै अस घानी आ‌ई

झूठे सबहि, आप पुनि साँचे सबहि नबी के पाछे बाँचे

 

नबिहि छाड हो‌इहि सबहि बारह बरस राह  

सब अस जान ‘मुहम्मद’, हो‌इ बरस कै राह ॥४४॥

 

पुनि रसूल नेवतब जेवनारा बहुत भाँति हो‌इहि परकारा  

ना अस देखा, ना अस सुना जौ सरहौं तौ है दस गुना

पुनि अनेक बिस्तर तहँ डासब बास सुबास कपूर से बासब

हो‌इ आयसु जौ बेगि बोला‌उब सब उमत साथ ले‌इ आ‌उब

जिबर‌ईल आगे हो‌इ ज‌इहैं पग डारै कहँ आयसु दे‌इहैं

चलब रसूल उमत ले‌इ साथा परग परग पर नावत माथा

‘आवहु भीतर’ बेगि बोला‌उब बिस्तर जहाँ तहाँ बैठा‌उब

 

झारि उमत सब बैठी जोरि कै एकै पाँति

सब के माँझ ‘मुहम्मद’, जानौ दुलह बराति ॥४५॥

 

पुनि जेंवन कहँ आवै लागैं सब के आगे धरत खाँगै

भाँति भाँति कर देखब थारा जानब ना दहुँ कौन प्रकारा

पुनि फरमा‌उब आप गोसा‌ईं बहुतै दुख देखे‌उ दुनिया‌ईं

हाथन्ह से जेंवन मुख डारत जीभ पसारत दाँत उघारत

कूँचत खात बहुत दुख पा‌ए‌उ तहँ ऐसै जेवनार जेवाँए‌उँ

अब जिन लौटि कस्ट जि‌उ करहू सुख सवाद इंद्री भरहू

पाँच भूत आतमा सेरा‌ई बैठि अघा‌उ, उदर ना भा‌ई

 

ऐस करब पहुना‌ई, तब हो‌इहि संतोख

दुखी होहु ‘मुहम्मद’, पोखि लेहु फुर पोख ॥४६॥

 

हाथन्ह से केहु कौर ले‌ई जो‌इ चाह मुख पैठे सो‌ई

दाँत,जीभ,मुख किछु डोला‌उब जस जस रुचिहै तस तस खा‌उब

जैस अन्न बिनु कूँचै रूचै तैस सिठा‌इ जौ को‌ऊ कूँचै

एक एक परकार जो आ‌ए सत्तर सत्तर स्वाद सो पा‌ए

जहँ जहँ जा‌इ के परै जुडा‌ई इच्छा पूजै, खा‌इ अघा‌ई

अनचखे र‌अते फर चाखा सब अस ले‌इ अपरस रस चाखा

जलम जलम कै भूख बुझा‌ई भोजन केरे साथै जा‌ई

 

जेंवन अँचवन हो‌इ पुनि, पुनि हो‌इहि खिलवान

अमृत भरा कटोरा पियहु ‘मुहम्मद’ पान ॥४७॥

 

एक तौ अमृत बास कपूरा तेहि कहँ कहाँ शराब-तहूरा

लागब भरि भरि दे‌इ कटोरा पुरुष ज्ञान अस भरै महोरा

ओहि कै मिठा‌इ माति एक दा‌ऊँ जलम मानव हो‌इ अब काहूँ

सचु मतवार रहब हो‌इ सदा रहसै कूदै सदा सरबदा

कबहुँ खोवै जलम खुमारी जनौ बिहान उठै भरि बारी

ततखन बासि बासि जनु घाला घरी घरी जस लेब पियाला

सबहि भा मन सो मद पिया नव औतार भवा जिया

 

फिरै तँबोल, मया से कहब अपुन ले‌इ खाहु

भा परसाद ‘मुहम्मद’, उठि बिहिस्त महँ जाहु ॥४८॥

 

कहब रसूल ‘बिहिस्त जा‌ऊँ जौ लगि दरस तुम्हार पा‌ऊँ

उघर नैन तुमहिं बिनु देखे सबहि अँविरथा मोरे लेखे

तौ लै केहु बैकुंठ जा‌ई जझौ लै तुम्हरा दरस पा‌ई

करु दीदार, देखौं मै तोहीं तौ पै जी‌उ जा‌इ सुख मोहीं

देखें दरस नैन भरि ले‌ऊँ सीस ना‌इ पै भु‌इँ कहँ दे‌ऊँ

जलम मोर लागा सब थारा पलुहै जी‌उ जो गी‌उ उभारा

हो‌इ दयाल करु दिस्टि फिरावा तोहि छाँडि मोहि और भावा

 

सीस पायँ भु‌इँ लावौं, जौ देखौं तोहि आँखि

दरसन देखि मुहम्मद , हिये भरौं तोरि साखि ॥४९॥

 

सुनहु रसूल ! होत फरमानू बोल तुम्हार कीन्ह परमानू

तहाँ हुते‌उँ जहँ हुते‌उ ठा‌ऊँ पहिले रचे‌उँ मुहम्मद ना‌ऊँ

तुम बिनु अबहुँ परगट कीन्हेंउँ सहस अठारह कहँ जि‌उ दीन्हे‌उँ  

चौदह खँड ऊपर तर राखे‌उँ नाद चला‌इ भेद बहु भाखे‌उँ

चार फिरिस्तन बड औतारे‌उँ सात खंड बैकुंठ सँवारे‌उँ

सवा लाख पैगंबर सिरजे‌उँ कर करतूति उन्हहि धै बँधे‌उँ

औरन्ह कर आगे कत लेखा जेतना सिरजा को ओहि देखा 

 

तुम तहँ एता सिरजा, आप कै अंतरहेत

देखहु दरस ‘मुम्मद ’! आपनि उमत समेत ॥५०॥

 

सुनि फरमान हरष जि‌उ बाढे एक पाँव से भ‌ए उठि ठाढे

झारि उमत लागी तब तारी जेता सिरजा पुरुष नारी

लाग सबन्ह सहुँ दरसन हो‌ई ओहि बिनु देखे रहा को‌ई

एक चमकार हो‌इ उजियारा छपै बीजु तेहि के चमकारा

चाँद सुरुज छपिहैं बहु जोती रतन पदारथ मानिक मोती

सो मनि दिपें जो कीन्हि थिरा‌ई छपा सो रंग गात पर आ‌ई

ओहु रूप निरमल हो‌इ जा‌ई और रूप ओहि रूप समा‌ई

 

ना अस कबहूँ देखा, ना केहू ओहि भाँति

दरसन देखि ‘मुहम्मद’, मोहि परे बहु भाँति ॥५१॥

 

दु‌इ दिन लहि को‌उ सुधि सँभारे बिनु सुधि रहे, न नैन उघारे

तिसरे दिन जिबरैल जौ आ‌ए सब मदमाते आनि जगा‌ए

जे हिय भेदि सुदरसन राते परे परे लोटैं जस माते

सब अस्तुति कै करै बिसेखा ऐस रूप हम कतहुँ देखा

अब सब ग‌ए‌उ जलम दुख धो‌ई जो चाहिय हठि पावा सो‌ई

अब निहचिंत जी‌उ बिधि कीन्हा जौ पिय आपन दरसन दीन्हा

मन कै जेति आस सब पूजी रही को‌ई आस गति दूजी

 

मरन, गँजन परिहँस, दुख, दलिद्र सब भाग

सब सुख देखि ‘मुहम्मद’, रहस कूद जि‌उ लाग ॥५२॥

 

जिब ऐल कहँ आयसु हो‌इहि अछरिन्ह आ‌इ आगे पय जो‌इहिं

उमत रसूल केर बहिरा‌उब कै असवार बिहिस्त पहुँचा‌उब

सात बिहिस्त बिधिनै औतारा आठ‌ईं शदाद सँवारा  

सो सब देब‌उमत कहँ बाँटी एक बराबर सब कहँ आँटी

एक एक कहँ दीन्ह निवासू जगत-लोक विरसैं कबिलासू

चालिस चालिस हूरैं सो‌ई सँग लागि बियाही जो‌ई

सेवा कहँ अछरिन्ह केरी एक एक जनि कहँ सौ सौ चेरी

 

ऐसे जतन बियाहैं, जस साजै बरियात  

दूलह जतन मुहम्मद, बिहिस्त चले बिहँसात ॥५३॥

 

जिबरा‌इल इतात कहँ धा‌ए चोल आनि उम्मत पहिरा‌ए

पहिरहु दगल सुरँग रँग राते करहु सोहाग जनहु मद माते

ताज कुलह सिर मुहम्मद सोहै चंद बदन कोकब मोहै

न्हा‌इ खोरि अस बनी बराता नबी तँबोल खात मुख राता

तुम्हरे रुचे उमत सब आनब सँवारि बहु भाँति बखानब

खडे गिरत मद-माते ऐहैं चढि कै घोडन कहँ कुदरैहैं

जिन भरि जलम बहुत हिय जारा बैठि पाँव दे‌इ जमै ते पारा

 

जैसे नबी सँवारे, तैसे बने पुनि साज

दूलह जतन ‘मुहम्मद’, बिहिस्ति करैं सुख राज ॥५४॥

 

तानब छत्र मुहम्मद माथे पहिरैं फूलन्ह बिनु गाँथे

दूलह जतन होब असवारा लि‌ए बरात जैहैं संसारा

रचि रचि अछरिन्ह कीन्ह सिंगारा बास सुबास उठै महकारा

आज रसूल बियाहन ऐहैं सब दुलहिन दूलह सहुँ नैहैं

आरति करि सब आगे ऐहैं नंद सरोदन सब मिलि गैहैं

मँदिरन्ह हो‌इहि सेज बिछावन आजु सबहि कहँ मिलिहैं रावन

बाजन बाजै बिहिस्त दुवारा भीतर गीत उठै झनकारा

 

बनि बनि बैठीं अछरी , बैठि जोहैं कबिलास

बेगहि आ‌उ ‘मुहम्मद’, पूजै मन कै आस ॥५५॥

 

जिबर‌ईल पहिले से जैहैं जा‌इ रसूल बिहिस्त नियरैहैं

खुलिहैं आठौं पँवरि दुवारा पैठे लागे असवारा

सकल लोग जब भीतर जैहैं पाछे हो‌इ रसूल सिधैहैं

मिलि हूरैं नेवछावरि करिहैं सबके मुखन्ह फूल अस झरिहैं

रहसि रहसि तिन करब किरीडा अमर कुंकुमा भरा सरीरा

बहुत भाँति कर नंद सरोदू बास सुबास उठै परमोदू

अगर, कपूर, बेना कस्तूरी मँदिर सुबास रहब भरपूरी

 

सोवन आजु जो चाहै, साजन मरदन हो‌इ  

देहिं सोहाग ‘मुहम्मद’, सुख बिरसै सब को‌इ ॥५६॥

 

पैठि बिहिस्त जौ नौनिधि पैहैं ।अपने अपने मँदिर सिधैहैं

एक एक मंदिर सात दुवारा अगर चँदन के लाग केवारा

हरे हरे बहु खंड सँवारे बहुत भाँति द‌इ आपु सँवारे

सोने रूपै घालि उँचावा निरमल कुहुँकुहुँ लाग गिलावा

हीरा रतन पदारथ जरे तेहि जोति दीपक जस बरै

नदी दूध अतरन कै बहहीं मानिक मोति परे भु‌इँ रहहीं

ऊपर गा अब छाहँ सोहा‌ई एक एक खंड चहा दुनिया‌ई

 

तात जूड कुनकुन, दिवस राति नहि दुक्ख

नींद भूख मुहम्मद, सब बिरसैं अति सुक्ख ॥५७॥

 

देखत अछरिन केरि निका‌ई रूप तें मोहि रहत मुरछा‌ई

लाल करत मुख जोहब पासा कीन्ह चहैं किछु भोग-बिलासा

हैं आगे बिनवैं सब रानी और कहैं सब चेरिन्ह आनी

सब आवैं मोरे निवासा तुम आगे ले‌इ आ‌उ कबिलासा

जो अस रूप पाट परधानी सबहिन्ह चेरिन्ह कै रानी

बदन जोति मनि माथे भागू बिधि आगर दीन्ह सोहागू

साहस करै सिंगार सँवारी रूप सुरूप पदमिनी नारी

 

पाट बैठि नित जोहैं, बिरहन्ह जारैं माँस

दीन दयाल, ‘मुहम्मद’, मानहु भोग विलास ॥५८॥

 

सुनहिं सुरूप अबहिं बहु भाँती इनहिं चाहि जो हैं रुपवाँती

सातौं पवँरि नघत तिन्ह पेखब सात‌इँ आ‌ए सो कौकुत देखब

चले जाब आगे तेहि आसा जा‌इ परब भीतर कबिलासा

तखत बैठि सब देखब रानी जे सब चाहि पाट परधानी

दसन जोति उट्ठै चमकारा सकल बिहिस्त हो‌इ उजियारा

बारहबानी कर जो सोना तेहि तें चाहि रूप अति लोना

निरमल बदन चंद कै जोती सब सरीर दिपैं जस मोती

 

बास सुबास छुवै जेहि बेधि भँवर कहँ जात

बर सो देखि ‘मुहम्मद’, हिरदै महँ समात ॥५९॥

 

पैग पै जस जस नियरा‌उब अधिक सवाद मिलै कर पा‌उब

नैन समा‌इ रहै चुप लागे सब कहँ आ‌इ लेहिं हो‌इ आगे

बिसरहु दूलह जोबन बारी पा‌ए‌उ दुलहिन राजकुमारी

एहि महँ सो कर गहि ले‌इ जैहैं आधे तखत पै लै बैठैहैं

सब अछूत तुम कहँ भरि राखे महै सवाद हो‌इ जौ चाखै

नित पिरीत, नित नव नव नेहु नित इठि चौगुन हो‌इ सनेहू

नित्त‌इ नित्त जो बारि बियाहै बीसौ बीस अधिक ओहिं चाहै

 

तहाँ मीचु, न नींद, दुख, रह देह महँ रोग

सदा अनँद ‘मुहम्मद’, सब सुख मानैं भोग ॥६०॥